Oscars की दौड़ में शामिल डॉक्युमेंट्री 'राइटिंग विद फायर' KhabarLahariya के सफर पर ही आधारित है. इसे दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक तबके से आने वाली ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाएं चलाती हैं
के अगले चरण में जगह बना ली है. इस डॉक्युमेंट्री को रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष ने डायरेक्ट किया है. लेकिन आज हम 'राइटिंग विद फायर' की बात करने नहीं जा रहे. हम बात करेंगे 'खबर लहरिया'अखबार/वेब पोर्टल की, जिसपर यह डॉक्युमेंट्री आधारित है. जानेंगे दलित-आदिवासी और अल्पसंख्यक महिलाओं के द्वारा चलाए जाने वाले इस अखबार के सफर के बारे में, जिसने पिछले 20 साल में सुदूर ग्रामीण इलाकों की आवाज सरकार से लेकर देश-विदेश तक पहुंचाई है.
2 पन्नों के इस मासिक अखबार को रिपोर्टर्स पैदल सुदूर ग्रामीण इलाकों में पहुंचाया करती थीं. पाठक बढ़ने पर इसकी छपाई शुरू की गई. धीरे-धीरे यह अखबार चित्रकुट के अलावा यूपी और एमपी में बुंदेलखंड के अन्य जिलों तक भी पहुंचने लगा.'खबर लहरिया' को सबसे खास बनाती है उसकी महिला पत्रकारों की टीम. इस टीम में ग्रामीण पृष्ठभूमि की दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएं शामिल हैं. इनमें कई महिलाएं ऐसी है, जिन्होंने या तो 5-7वीं तक की पढ़ाई की है या फिर पढ़ी ही नहीं हैं.
खबरों को बताने के लिए स्थानीय बोली का इस्तेमाल करने की वजह से बुंदेलखंड इलाके में यह काफी लोकप्रिय है. खबर लहरिया स्थानीय स्तर के जनसरोकार के मुद्दों को हमेशा प्राथमिकता देता है. चाहे महिलाओं के खिलाफ ग्रामीण और सुदूर इलाकों में अपराध हों, गांवों में विकास के अनदेखी हो या फिर पर्यावरण को लेकर प्रशासन की लापरवाही, ऐसी खबरें जिन्हें आम तौर पर मुख्यधारा के मीडिया संस्थान छोड़ देते हैं, उन्हें खबर लहरिया की महिला रिपोर्ट्स की टीम कवर करती है.
हम अपने रिपोर्टर्स को पत्रकारिता की बेसिक ट्रेनिंग देते हैं. उन्हें बताते हैं कि फील्ड में कैसा व्यवहार रखना है. हम हर तरह की खबरें कवर करते हैं, हम महिलाओं पर रिपोर्टिंग करते हैं, हिंसा पर रिपोर्टिंग करते हैं, सरकारी योजनाओं के लागू करने में खामियों को उजागर करते हैं. पर्यावरण से जुड़ी खबरें भी करते हैं. बुंदेलखंड के लोगों को होने वाली हर परेशानी को हम कवर करते हैं. ग्रामीण आवाज को बाहर तक पहुंचाना बहुत जरूरी है.खबर लहरिया 2015 से पूरी तरह डिजिटल हो गया और अब यह चंबल मीडिया का एक अंग है.