सावरकर –काला पानी और उसके बाद। अशोक कुमार पांडे की नई किताब। यहां पढ़ें एक अंश।
शक की सूई अपनी तरफ़ घूमती देख इस बार भी गिरफ़्तारी के 17वें दिन 22 फरवरी, 1948 को बम्बई के पुलिस कमिश्नर को लिखा था- यदि मुझे इस शर्त पर रिहा कर दिया जाए कि मैं किसी साम्प्रदायिक या राजनैतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लूँगा तो सरकार जब तक चाहे, मैं इसका पालन करने को तैयार हूँ। लेकिन इस बार सरकार से उन्हें कोई छूट नहीं मिली।
केतकर ने यह भी कहा था कि उसने यह जानकारी उस समय पूना के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता बालूकाका कानितकर को दे दी थी, जिन्होंने इस बारे में बम्बई के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.जी. खेर और मोरारजी देसाई को पत्र लिखकर सूचित किया था। इसी अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एन.जी. अभ्यंकर ने गोडसे की तारीफ़ करते हुए उसकी तुलना भगवान् कृष्ण और शिव से की।
आश्चर्यजनक है कि इतने पुख़्ता साक्ष्यों के होते हुए भी न तो उन्हें अदालत में पेश किया गया न ही सावरकर के बरी हो जाने के बाद पंजाब उच्च न्यायालय में सरकार द्वारा उसके ख़िलाफ़ कोई अपील की गई। सावरकर ने ख़ुद पर लगे आरोपों के जवाब में मुख्य रूप से कहा था कि— 17 जनवरी, 1948 को आप्टे और गोडसे मुझसे नहीं मिले थे। अगर वे सावरकर सदन में आए भी होंगे तो सम्भव है किसी किरायेदार से मिलने आए हों जो पहले माले पर ही रहते...
गोडसे, आप्टे तथा अन्य आरोपियों ने अपने गुरु को बचाने के लिए उनके बयानों का समर्थन ही किया था, लेकिन सावरकर की मृत्यु के दो साल बाद आई इस रिपोर्ट से पता चलता है कि 31 जनवरी, 1948 को एन.वी. लिमये नामक व्यक्ति ने पुलिस को बताया था कि अगर नथूराम गोडसे गांधी का हत्यारा है तो सावरकर, उनके सचिव जी.वी. दामले और अंगरक्षक ए.आर. कासर को निश्चित रूप से इस षड्यंत्र की जानकारी होगी। उसी के साथ गिरफ़्तार डब्ल्यू.बी.
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