बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की वकालत की दुनिया में कितनी धाक थी?

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आंबेडकर जयंती के अवसर पर पढ़िए बाबा साहेब डॉक्टर बीआर आंबेडकर के एक वकील के रूप में करियर और उनकी ओर से लड़े गए प्रमुख मुक़दमों के बारे में.

किसी का पक्ष लेना और उसे ठीक से प्रस्तुत करना आम बोलचाल की भाषा में 'किसी की वकालत करना' कहलाता है. भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर एक जाने माने वकील भी थे. उन्होंने न केवल अपने मुवक्किलों के लिए वकालत की बल्कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लोकतांत्रिक मूल्यों की भी वकालत की. इसलिए, उनकी गिनती आज भी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वकीलों में होती है.

यह आर्थिक मदद के बदले में उन्हें बड़ौदा के राजपरिवार के साथ एक अनुबंध करना पड़ा था कि अमेरिका में पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें बड़ौदा सरकार के अधीन नौकरी करनी थी. 1917 में, बड़ौदा सरकार की छात्रवृत्ति समाप्त हो गई और अफ़सोस के साथ उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी. इस बीच उनके परिवार को आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था. इस स्थिति को देखते हुए ही आंबेडकर ने भारत लौटने का फ़ैसला लिया था.

लेकिन चूंकि सिडेनहैम कॉलेज की नौकरी सरकारी थी, इसलिए उन पर कई तरह की पाबंदियां भी थीं. इसके चलते ही उन्होंने 1920 में प्रोफ़ेसर पद से त्यागपत्र दे दिया और सीधे दलित मुक्ति के संघर्ष में कूद पड़े. लंदन में बाबा साहेब आंबेडकर के रूममेट होते थे असनाडेकर. वे आंबेडकर से कहते, ''अरे आंबेडकर, रात बहुत हो गई है. कितनी देर तक पढ़ते रहोगे, कब तक जगे रहोगे? अब आराम करो. सो जाओ."

यह डॉ. आंबेडकर के काम के प्रति श्रद्धांजलि थी हालांकि सौ साल पहले इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें खासा संघर्ष करना पड़ा था. यहां ये भी देखना होगा कि हैदराबाद के निज़ाम ने उन्हें राज्य के मुख्य न्यायाधीश के पद की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने उस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया. वे इन लोगों के साथ सामाजिक, आर्थिक या फिर धार्मिकता के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करते थे. उन्होंने सेक्स वर्करों को भी क़ानूनी सहायता दिलाने के लिए अपने दरवाज़े खोल रखे थे. वे किसी के साथ किसी भी तरह का पूर्वाग्रह का भाव नहीं रखते थे.

समाज में दलित समुदाय की स्थिति कैसी है, इस बारे में ब्रिटिश सरकार के सामने पक्ष रखने के लिए 1928 में साइमन कमीशन के सामने गवाही देने के लिए डॉ. आंबेडकर को चुना गया था. अमूमन होता यह है कि अभियोजन पक्ष का भाषण पहले होता है, लेकिन डॉ. आंबेडकर की स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें अपना पक्ष पहले रखने की अनुमति दी गई.

डॉ. कर्वे को रूढ़िवादी समाज के गुस्से का सामना करना पड़ रहा था. उन पर एक मुक़दमा दर्ज हुआ कि अपनी मासिक पत्रिका 'समाज स्वास्थ्य' के ज़रिए वे समाज में अश्लीलता फैला रहे हैं. हालांकि डॉ. आंबेडकर यह मामला हार गए थे. लेकिन कहा जाता है कि उनकी प्रगतिशील सोच और मदद के चलते कर्वे आख़िर में ये मामला जीतने में कामयाब हुए थे.'देश के दुश्मन' केस में बाबा साहेब की भूमिका को समझने से पहले 1926 में सामने आए इस मामले को समझते हैं. दिनकर राव जावलकर और केशव राव जेधे गैर-ब्राह्मण आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से थे. उस समय ब्राह्मण समुदाय के लोग सामाजिक सुधारों का विरोध कर रहे थे. इस प्रबल विरोध के कारण रुढ़िवादियों ने महात्मा फुले की आलोचना भी की थी.

इस मामले को पुणे सेशन कोर्ट में जज लॉरेंस की अदालत में सुना गया. आंबेडकर ने एक पुराने मानहानि केस का हवाला देकर यह केस लड़ा. महाड़ सत्याग्रह में एक तरह से हिंदुओं और अछूतों के बीच सीधा संघर्ष था. हिंदुओं की ओर से कुछ असामाजिक तत्वों ने अछूत समुदाय के लोगों पर भी हमला किया ताकि वे लोग महाड़ झील पर न आएं और पानी को न छूएं. हिंदुओं की तरफ़ से डॉ. आंबेडकर और उनके साथियों पर कई मुक़दमे दर्ज किए गए.

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