जलवायु परिवर्तन और लगातार घटते जंगलों की वजह से मिथुन पर विलुप्त होने का ख़तरा मंडरा रहा है.
मिथुन, गायों की ऐसी प्रजाति है जो हिमालय पर्वत श्रृंखला में पाई जाती है. इस पालतू जानवर को कई लोग पवित्र मानते हैं. लेकिन जलवायु परिवर्तन और लगातार घटते जंगलों की वजह से मिथुन के विलुप्त होने का ख़तरा मंडरा रहा है.
अपने परिवार का ख़र्च चलाने के लिए यांग एरिंग सरकार द्वारा नियुक्त प्रशिक्षिका की ज़िम्मेदारी भी निभाती हैं. वो मिरेम और दूसरे गांवों की महिलाओं को रोज़गार करने के हुनर सिखाती हैं. मिरेम गांव में मिथुनों के एक और चरवाहे और ये काम करने वाले किसानों के संगठन के पूर्व अध्यक्ष बरुन ताकी बताते हैं, "अरुणाचल प्रदेश की आदि जनजाति के लिए इस धरती पर मौजूद सभी चीज़ों का अस्तित्व मिथुन के जन्म से जुड़ा है. जब मिथुन का जन्म डाडी बोटे के तौर पर हुआ, तो जानवरों के देवता उनके संरक्षक बन गए थे."
उत्तरी पूर्वी भारत में यांग एरिंग मोयोंग और दूसरे आदिवासी चरवाहे, मिथुनों को एक खुले इलाक़े वाले इको-सिस्टम में पालते हैं. इन इलाक़ों में मिथुनों को जंगलों में घूमने की छूट होती है, और जानवरों को नमक के सिवा खाने के लिए कुछ और नहीं देना पड़ता. नगालैंड में भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र के मिथुनों पर नेशनल रिसर्च सेंटर के निदेशक गिरीश पाटिल कहते हैं कि बढ़ते तापमान और बारिश में उतार चढ़ाव से मिथुन की रिहाइश वाले क्षेत्रों पर भी असर पड़ता है. इसकी वजह से हरियाली का फैलाव और वहां मिलने वाली पेड़ पौधों की प्रजातियां भी प्रभावित होती हैं. गिरीश पाटिल बताते हैं कि, ‘बाढ़ या सूखे जैसी भयंकर मौसम की घटनाएं उन इलाक़ों को और भी नुक़सान पहुंचाती हैं, जहां मिथुन पाये जाते हैं. उनके इलाक़े टुकड़ों में बंट जाते हैं.
मिथुनों के ठौर ठिकाने वाले क्षेत्र और इस नस्ल को बचाने के लिए आईसीएआर-एनआरसी के वैज्ञानिकों ने 2022 में आदि जनजाति के साथ मिलकर काम किया था, ताकि उनके लिए एक स्थायी ‘बाड़' का निर्माण कर सकें. रेमी नदी के आर-पार हिमालय के पूर्वी तराई इलाक़ों में इन ‘सजीव बाड़ों' का निर्माण ऑर्किड के डंडों और कंटीले तारों की मदद से किया जाता है. मिथुन ऑर्किड के पेड़ों की पत्तियों को खाते हैं.
बरुन ताकी कहते हैं कि पिछली बार भारी बारिश होने पर रेमी नदी में बाढ़ आ गई थी. उसकी धारा में मिथुनों के लिए बनाई गई बाड़ डूब गई थी. वो कहते हैं कि, ‘ये बाड़ बारिश के दौरान नदी की तेज़ धार का क़हर नहीं झेल सकती. ऐसा होता तो बहुत कम है. पर कभी कभार होता ज़रूर है.’पूर्वोत्तर भारत की जनजातियों ने अपने मिथुनों को भागने से रोकने के लिए ख़ास तरह की बाड़ लगाई है.
नगालैंड के 47 साल के मिथुन पालने वाले किसान केविरिबाम ज़ेलियांग कहते हैं कि, ‘मिथुन जंगलों में खुलकर विचरते हैं. ये जानवर आम तौर पर छोटे पौधों और नीचे पेड़ों को ही चरते हैं. क्योंकि ये ज़्यादा ऊंचाई की पत्तियों तक नहीं पहुंच पाते हैं. खाने के बाद ये जानवर चलते फिरते अपने गोबर के ज़रिए इन पौधों के बीज मिट्टी में गिरा देते हैं, जिससे जंगलों में पेड़ पौधे दोबारा उग आते हैं.’
साल 2013 में केविरिबाम ज़ेलियांग के परिवार के पास 16 मिथुन हुआ करते थे. जब उन्होंने देखा कि मिथुनों को किसान गोली मार रहे हैं या फिर उन्हें जंगली कुत्ते खा जाते हैं, तो ज़ेलियांग ने मिथुन पालने बंद कर दिए. वो कहते हैं कि, ‘ज़्यादातर मिथुनों को किसानों ने उस वक़्त मार डाला, जब वो उनकी खेती बाड़ी की ज़मीन में घुस गए और फ़सलों को नुक़सान पहुंचाया था. बाक़ी मिथुनों को जंगली शिकारियों और फूट ऐंड माउथ बीमारी ने निगल लिया.
ज़ेलियांग कहते हैं कि मिथुन पालने से उनकी इतनी कमाई हो जाती है कि वो अपने बच्चों को स्कूल भेज सकते हैं और आगे चलकर शायद उन्हें यूनिवर्सिटी में भी पढ़ने भेज सकेंगे.जब से इस इलाक़े में ये नई तरह की बाड़ लगनी शुरू की गई, तब से मिथुनों की आबादी बढ़ी है. खाटे और आईसीएआर-एनआरसी के दूसरे वैज्ञानिकों द्वारा की गई इस पहल की निगरानी करने वाली एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 2016 में जहां मिथुनों की संख्या 50 थी, जो 2020 में बढ़कर 70 पहुंच गई थी. किसानों ने इस दौरान नौ लाख 75 हज़ार रुपए का मुनाफ़ा भी कमाया है.
40 बरस की किफुतलक नेवमई के पास पहले दो मिथुन थे. लेकिन, अपने बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च निकालने के लिए उन्हें अपने एक मिथुन को बेचना पड़ा था. वो बताती हैं कि, ‘और दूसरा मिथुन या तो खेती और फसलों को बचाने की लड़ाई में या तो मारा गया, या फिर जंगल में गुम हो गया.’ आईसीएआर-एनआरसी के गिरीश पाटिल कहते हैं कि, ‘मिथुन मुख्य रूप से मांस के लिए पाला जाने वाला जानवर है. जिसे कम से कम तीन से चार साल तक पालना पोसना पड़ता है. मिथुनों को पालने के लिए बड़े बड़े चरागाह होना बहुत ज़रूरी है. तमाम तरह के दूसरे पालतू जानवर पालने की तुलना में किसानों के लिए मिथुनों को पालना शायद फ़ायदे का सौदा न हो.’ उनका कहना है कि, ‘जनजातीय किसानों के पास आम तौर पर इतने पैसे नहीं होते कि वो दूसरे तरह के जानवर पाल सकें.
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