लैटरल एंट्री को लेकर हुए ताज़ा विवाद के बीच ये देखना दिलचस्प है कि पहले कौन से लोग इस रास्ते से ब्यूरोक्रेसी में आए और उसके शीर्ष पर पहुँचे.
भारत सरकार में लैटरल एंट्री से नियुक्ति का सिलसिला पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल से ही शुरू हो गया थालैटरल एंट्री को लेकर पिछले दिनों काफ़ी विवाद रहा और मोदी सरकार ने 45 पदों पर होने वाली नियुक्ति रोक दी.
उन्होंने सन 1939 में ऑल इंडिया रेडियो मद्रास में पब्लिसिटी असिस्टेंट और उद्घोषक के तौर पर अपना करियर शुरू किया था. सन 1995 में इंडोनेशिया की सरकार ने पीआरएस मणि को अपने सबसे बड़े राजकीय पुरस्कार 'फ़र्स्ट क्लास स्टार ऑफ़ सर्विस' से सम्मानित किया था. जयराम रमेश हक्सर की जीवनी ‘इंटरट्वाइंड लाइव्स पीएन हक्सर एंड इंदिरा गांधी’ में लिखते हैं,''हक्सर के बारे में कहा जाता था कि आधुनिक भारत के नाज़ुक मोड़ पर वो न सिर्फ़ यहाँ के सबसे ताक़तवर नौकरशाह थे, बल्कि इंदिरा गांधी के बाद भारत के दूसरे सबसे ताक़तवर इंसान भी थे और उनकी ताक़त का स्रोत इंदिरा गांधी नहीं थीं.''चीफ़ ऑफ़ प्रोटोकॉल मिर्ज़ा राशिद बेग़
बाद में उन्हें ट्रेड फ़ेयर अथॉरिटी का प्रमुख बनाया गया. वो अंत तक इंदिरा गाँधी के करीब रहे. 1977 में जब इंदिरा गांधी चुनाव हारीं और सांसद नहीं रह गईं तो उन्होंने उन्हें 12 विलिंग्टन क्रेसेंट का अपना घर रहने के लिए दे दिया था. कल्लोल भट्टाचार्जी लिखते हैं, ''बच्चन की सलाह पर ही बाहरी मामलों के मंत्रालय का नाम विदेश मंत्रालय रखा गया था.''उन्होंने विदेश मंत्रालय में आने वाले कई अफ़सरों को हिंदी पढ़ाई थी. बाद में विदेश मंत्री बने नटवर सिंह उनमें से एक थे.”
इसके बाद वो हैदराबाद के निज़ाम कॉलेज में दर्शन शास्त्र विभाग की प्रमुख हो गईं थीं. वहाँ से उन्हें सीधे विदेश मंत्रालय में सीनियर स्केल में नियुक्त किया गया था. इसमें पूरे भारत से कुल 131 पेशेवर लोगों को चुना गया था. इनमें से कई लोग जैसे मंतोष सोंधी, वी कृष्णामूर्ति, मोहम्मद फ़ज़ल और डीवी कपूर जैसे लोग सचिव स्तर तक पहुंचे थे.
उसी ज़माने में सैम पित्रोदा को सीधे अमेरिका से लाकर सेंटर फ़ॉर डेवेलपमेंट ऑफ़ टेलीमेटिक्स का प्रमुख बनाया गया था.
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